Tuesday, February 15, 2011

..एक थे महाप्राण


 मुझे स्वर्गीय श्री मुकुट बिहारी सरोज जी की कुछ पंक्तियां याद आ रही है...इन पंक्तियों को जब भी मै गुनगुनाता हूं तो ऐसा लगता है कि श्री सरोज जी ने इसे खास तौर पर मुझ जैसे अलालों के लिये लिखा गया है..दरअसल मै सोचता हूं तो सही वक्त पर हू...लेकिन मेरी सोच को मूर्त रूप लेने में काफी समय लग जाता है...क्या करू आखिर मेरी कुछ आदत खराब है...जी हां यही कुछ पंक्तियां हैं जिसे मै हमेशा गुनगुनाता हूं...खैर जैसा भी हो आज देर से ही सही महाप्राण के बारे में कुछ लिखने का मैं प्रण कर लिया हूं.और अब लिखकर ही रहूंगा...महाप्राण के सानिध्य में रहने वालों की माने तो निराला जी महाकुंभ में भी आसानी से पहचान लिये जाते थे...दरअसल महाप्राण की व्यक्तित्व ही ऐसा था...जो उन्हें लाखों की भीड़ में अलग खड़ा कर देता था...जितनी उनकी उचाई थी...उससे कहीं अधिक उनका हृदय विशाल था...जीवन के हर रंग उनके हृदय में समाए थे....विपत्तियों से उनका चोली दामन का संबध था...पूर्वाग्रह से परे उन्होंने जब भी लिखा...बखिया उधेड़ कर रख दिया...सच तो ये है महाप्राण तूफान के सामने किसी चट्टान से कम नहीं थे..समकालीन साहित्यकारों का मानना है कि महाप्राण जहां खड़े होते लाइन वहीं से शुरू होती थी..तभी तो बच्चन जी ने उन्हें यूनिवर्स का कवि कहा..कभी सोचता हूं महाप्राण के नाम से जुड़ा उप नाम निराला कैसे उनके जिन्दगी के साथ जुड़ गया...फिलहाल इस नाम संस्कार में मैं नहीं पड़ना चाहता...लेकिन इतना जरूर है...कि इस नाम ने उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह परिभाषित किया है...सच तो ये है निराला के जीने का अन्दाज ही निराला था...इलाहाबाद के सिलनभरी कोठरी में इस बात की गवाह है कि वे नेहरू के दंभ भरे सम्मान को चुटकियों में ठुकरा दिया...कहते हैं निराला का लक्ष्मी से जीवन भर छत्तीस का आकड़ा रहा...बावजूद इसके वे कभी विपत्तियों के सामने झुके नहीं...विपत्तियों से उनका मां बेटे का संबंध था...और दोनों में ये संबंध बना रहा...निराला जी का संपूर्ण जीवन घनघोर विपत्तियों में गुजरा...बचपन में मां ने साथ छोड़ा...किशोरवय में पिता भी निराला को इस धधकती दुनिया में अकेला छोड़ कर चले गये...महामारी में उनका पूरा परिवार निराला को अकेला छोड़ दिया...बावजूद इसके निराला एक अटल चट्टान की तरह जिन्दगी को अपने इशारा पर घूमाते रहे...टूट गये लेकिन झुके नहीं...हिन्दी,संस्कृत भाषा पर निराला जी का एकाधिकार था...और हर विधा में उन्होंने खूब लिखा..चाहे कहानी हो या उपन्यास,कविता हो या निबंध...जो भी लिखा,जितना लिखा,वह भारतीय हिन्दी साहित्य की मील का पत्थर साबित हुआ...बावजूद इसके मै ये कहना चाहूंगा कि निराला जी कविता के क्षेत्र में साहित्य जगत के दिनमान हैं...नितांत ठेठ अंदाज में अपनी बातों को रखने वाले निराला जी को साहित्य जगत में रबर शैली का जन्मदाता माना जाता है...छायावाद के संस्थापक महाप्राण ने परंपराओं से हमेशा खिलवाड़ किया है...नित नए प्रयोग की आदतों के कारण वे हमेशा आलोचकों के लिए साफ्ट कार्नर रहे...यही कारण है कि आलोचकों ने उनकी रचनाओं में दुरूहता का आरोप लगाया है...दरअसल जो ऐसा सोचते हैं..उन्हें काव्य और दर्शन का बोध ही नहीं है..ऐसे लोग निराला को समझना दूर पढ़ना भी मुश्किल है...दरअसल निराला की रचनाओं में भावबोध ही नहीं उनका चिंतन भी समाहित रहता है...इस कारण उनकी रचनाओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है...जिसे नासमझ लोग दुरुह समझ बैठते हैं...सच तो ये निराला ने अपनी कविताओं में यथार्थवाद की नई भूमि तैयार की है...रसिक पाठकों को मालूम होना चाहिये निराला चमत्कार के भरोसे कभी अकर्मण्य नहीं हुए...शब्दों और ध्वनियों से उन्होंने जमकर खिलवाड़ किया...जिसके कारण उनकी हर कृति काव्य जगत की थाति बन गयी...बावजूद इसके मै ये कहना चाहूंगा...निराला को अभी भी ढंग से नहीं समझा गया है...उन्हें आज पढ़ने सर्वाधिक जरूरत है...यदि ऐसा किया गया तो...आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी...और फिर हमें इतना है कहकर संतोष करना पड़ेगा कि...बच्चों..........एक थे महाप्राण

.....एक थे महाप्राण




इस समय मुझे स्वर्गीय श्री मुकुट बिहारी सजोज जी की कुछ पंक्तियां याद आ रही है...इन पंक्तियों को जब भी मै गुनगुनाता हूं तो ऐसा लगता है कि श्री सरोज जी ने इसे खास तौर पर मुझ जैसे अलालों के लिये लिखा गया है..दरअसल मै सोचता हूं तो सही वक्त पर हू...लेकिन मेरी सोच को मूर्त रूप लेने में काफी समय लग जाता है...क्या करू आखिर मेरी कुछ आदत खराब है...जी हां यही कुछ पंक्तियां हैं जिसे मै हमेशा गुनगुनाता हूं...खैर जैसा भी हो आज देर से ही सही महाप्राण के बारे में कुछ लिखने का मैं प्रण कर लिया हूं.और अब लिखकर ही रहूंगा...महाप्राण के सानिध्य में रहने वालों की माने तो निराला जी महाकुंभ में भी आसानी से पहचान लिये जाते थे...दरअसल महाप्राण की व्यक्तित्व ही ऐसा था...जो उन्हें लाखों की भीड़ में अलग खड़ा कर देता था...जितनी उनकी उचाई थी...उससे कहीं अधिक उनका हृदय विशाल था...जीवन के हर रंग उनके हृदय में समाए थे....विपत्तियों से उनका चोली दामन का संबध था...पूर्वाग्रह से परे उन्होंने जब भी लिखा...बखिया उधेड़ कर रख दिया...सच तो ये है महाप्राण तूफान के सामने किसी चट्टान से कम नहीं थे..समकालीन साहित्यकारों का मानना है कि महाप्राण जहां खड़े होते लाइन वहीं से शुरू होती थी..तभी तो बच्चन जी ने उन्हें यूनिवर्स का कवि कहा..कभी सोचता हूं महाप्राण के नाम से जुड़ा उप नाम निराला कैसे उनके जिन्दगी के साथ जुड़ गया...फिलहाल इस नाम संस्कार में मैं नहीं पड़ना चाहता...लेकिन इतना जरूर है...कि इस नाम ने उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह परिभाषित किया है...सच तो ये है निराला के जीने का अन्दाज ही निराला था...इलाहाबाद के सिलनभरी कोठरी में इस बात की गवाह है कि वे नेहरू के दंभ भरे सम्मान को चुटकियों में ठुकरा दिया...कहते हैं निराला का लक्ष्मी से जीवन भर छत्तीस का आकड़ा रहा...बावजूद इसके वे कभी विपत्तियों के सामने झुके नहीं...विपत्तियों से उनका मां बेटे का संबंध था...और दोनों में ये संबंध बना रहा...निराला जी का संपूर्ण जीवन घनघोर विपत्तियों में गुजरा...बचपन में मां ने साथ छोड़ा...किशोरवय में पिता भी निराला को इस धधकती दुनिया में अकेला छोड़ कर चले गये...महामारी में उनका पूरा परिवार निराला को अकेला छोड़ दिया...बावजूद इसके निराला एक अटल चट्टान की तरह जिन्दगी को अपने इशारा पर घूमाते रहे...टूट गये लेकिन झुके नहीं...हिन्दी,संस्कृत भाषा पर निराला जी का एकाधिकार था...और हर विधा में उन्होंने खूब लिखा..चाहे कहानी हो या उपन्यास,कविता हो या निबंध...जो भी लिखा,जितना लिखा,वह भारतीय हिन्दी साहित्य की मील का पत्थर साबित हुआ...बावजूद इसके मै ये कहना चाहूंगा कि निराला जी कविता के क्षेत्र में साहित्य जगत के दिनमान हैं...नितांत ठेठ अंदाज में अपनी बातों को रखने वाले निराला जी को साहित्य जगत में रबर शैली का जन्मदाता माना जाता है...छायावाद के संस्थापक महाप्राण ने परंपराओं से हमेशा खिलवाड़ किया है...नित नए प्रयोग की आदतों के कारण वे हमेशा आलोचकों के लिए साफ्ट कार्नर रहे...यही कारण है कि आलोचकों ने उनकी रचनाओं में दुरूहता का आरोप लगाया है...दरअसल जो ऐसा सोचते हैं..उन्हें काव्य और दर्शन का बोध ही नहीं है..ऐसे लोग निराला को समझना दूर पढ़ना भी मुश्किल है...दरअसल निराला की रचनाओं में भावबोध ही नहीं उनका चिंतन भी समाहित रहता है...इस कारण उनकी रचनाओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है...जिसे नासमझ लोग दुरुह समझ बैठते हैं...सच तो ये निराला ने अपनी कविताओं में यथार्थवाद की नई भूमि तैयार की है...रसिक पाठकों को मालूम होना चाहिये निराला चमत्कार के भरोसे कभी अकर्मण्य नहीं हुए...शब्दों और ध्वनियों से उन्होंने जमकर खिलवाड़ किया...जिसके कारण उनकी हर कृति काव्य जगत की थाति बन गयी...बावजूद इसके मै ये कहना चाहूंगा...निराला को अभी भी ढंग से नहीं समझा गया है...उन्हें आज पढ़ने सर्वाधिक जरूरत है...यदि ऐसा किया गया तो...आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी...और फिर हमें इतना है कहकर संतोष करना पड़ेगा कि...बच्चों..........एक थे महाप्राण

Monday, February 7, 2011

ग़ज़ल

माल यहां महंगा है लोग बहुत सस्ते हैं
साफ बच निकलने के औऱ कई रस्ते हैं
सामुहिक भेड़चाल का परिणाम मालूम है लेकिन
जहां भीड़ होती है,लोग वहीं ठसते हैं
क्रान्ति को प्रणाली पर,डाल पर कुल्हाड़ी पर
बस्ती के कालिदास व्यंग्य खूब कसते हैं
मरहम के नये नये इलाके तलाशे जाते हैं
रिश्तों के कई घाव आजीवन रिसते हैं
घर्र-घर्र करती चक्कियां व्यवस्था की
घुन हैं कुछ जौ के साथ पिसते हैं
नालायक बेटों के बाप मूंछ ऐठे हैं
बाप बच्चियों के चल-चल एंडी घिसते हैं
समझ में नही आता यार...इस शहर में भी
लोग कहां बसते हैं,पैदा कहां होते हैं

कुछ दोहे

गली गली लालू बसे,घर घर में सुखराम
दास भास्कर कह रहा सबके दाता राम

मार भगाया ठगों को डकैत हैं कमजोर
तिकड़म से मंत्री बनें कितने सुविधाखोर

सबके दाता राम कटोरों बढ़ते जाओ
बने धर्म निरपेक्छ ठाठ से मारो खाओ


कहे कबीर कहा सुनी,तुलसी मारे मंत्र
जैसे तैसे गांव में जीवित है गणतंत्र

छूंछ छूंछ रह जाए किनारे,सार सार बह जाए
भास्कर बुरा न मानिेए जो गंवार कह जाए



कुछ दोहे

गली-गली लालू बसे घर-घर में सुखराम
दास भास्कर कह रहा सबके दाता रम
मार भगाया ठगों को डकैत हैं कमजोर
तिकड़म से मंत्री बने कितने सुविधाखोर
समय समय का फेर है सबके दाता राम
गली-गली लालू बसें घर-घर में सुखराम
सबके दाता राम कटोरों बढ़ते जाओ
बने धर्म निरपेक्छ ठाठ से मारो खाओ
कहे कबीर कहा सुनी,तुलसी मारे मंत्र
जैसे-जैसे गांव में जीवित है गणतंत्र
छूंच-छूछ रह जाए किनारे सार सार बह जाय
भास्कर बुरा न मानिए जो गवार कहि जाए

ग़ज़ल

माल यहां महंगा है लोग बहुत सस्ते हैं
साफ बच निकलने के औऱ कई रस्ते हैं
सामुहिक भेड़चाल का परिणाम मालूम है लेकिन
जहां भीड़ होती है,लोग वहीं ठसते हैं
क्रान्ति को प्रणाली पर,डाल पर कुल्हाड़ी पर
बस्ती के कालिदास व्यंग्य खूब कसते हैं
मरहम के नये नये इलाके तलाशे जाते हैं
रिश्तों के कई घाव आजीवन रिसते हैं
घर्र-घर्र करती चक्कियां व्यवस्था की
घुन हैं कुछ जौ के साथ पिसते हैं
नालायक बेटों के बाप मूंछ ऐठे हैं
बाप बच्चियों के चल-चल एंडी घिसते हैं
समझ में नही आता यार...इस शहर में भी
लोग कहां बसते हैं,पैदा कहां होते हैं

Sunday, February 6, 2011

surendra mohan by rajesh

दिल्ली की भीड़ भाड़ वाली एक सुबह, वक्त तकरीबन दिन के दो बजे, स्थान दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले का प्रांगण। समाजवादी चिंतक डॉ प्रेम सिंह की पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम में प्रसिद्ध आलोचक डॉ नामवर सिंह को शिरकत करना था। लेकिन सारी तैयारी पूरी होने के बावजूद भी वे किसी दूसरे स्टॉल में और कार्यक्रम में व्यस्त थे। तभी एक बुजुर्ग ने मेरे कांधे पर हाथ रखकर धीरे से कहा नामवर जी अमुक के साथ हैं उनका मोबाइल नंबर मिलाओ। मैँने तुरंत उनसे पूछा कि नंबर क्या है। उन्होंने नंबर बताया। मैंने डॉयल किया। तभी बुजुर्ग सज्जन ने मोबाइल पर नामवर जी से बात की..और कहा नामवर जी कहां व्यस्त हैं अब आ भी जाओ..अब तो कई नामवर हो गए..। बात सीधी थी लेकिन कई मतलब रखती थी। नामवर जी ने कहा कि वे और नामवरों को तैयार करने ही आए हैं और तुरंत स्टॉल में हाजिर हो गए। ये बुजुर्ग सज्जन और कोई नहीं प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक सुरेन्द्र मोहन थे। मैंने अपने तमाम मित्रों को बड़े गर्व के साथ कहा कि आज सुरेन्द्र मोहन ने मेरे मोबाइल से नामवर सिंह से बात की। न कोई चिंता न कोई मलाल न कोई गिला न कोई शिकवा .. बिल्कुल ही धवल चरित्र था सुरेन्द्र मोहन का। हैदराबाद में जैसे ही ख़बर आई कि सुरेन्द्र मोहन नहीं रहे। लगा सिर से अभिभावक का साया उठ गया। एक झटके में समाजवादी आंदोलन का सारथी चला गया। अपनी उन तमाम उम्मीदों को छोड़कर जिसे पूरा करने के लिए पूरी जिंदगी गुजार दी। आज के भ्रष्ट माहौल में एक ऐसी शख्शियत हमारे बीच से उठ गई , जिसे दिखाकर हम ईमानदारी की मिसाल दिया करते थे। कहा करते थे देखो ये वही शख्श है जिसने अपने सारे सपने महज इसलिए लुटा दिए कि हिन्दुस्तान में कुछ लोग सपने देख सकें। वो आंखें जो सालों साल से व्यवस्था की बोझ तले दबाई जा रही हैं। उन्हें आवाज देने के लिए ही सुरेन्द्र मोहन ने जिंदगी गुजार दी। कुर्बान अली ने बीबीसी में सटीक लिखा है...तुने न्यूनत्तम लिया ... अधिकत्तम दिया..तुम्हारे जैसा कौन जीया ... एक बड़े शायर ने कहा है कि यूं चलकर नहीं ये तर्जे सुखन आया है.. पांव दाबे हैं बुजुर्गों के तो फन आया है ... वादा भी है और भरोसा भी कि सुरेन्द्र मोहन की लड़ाई कमजोर नहीं होगी