Tuesday, October 11, 2011

साबरमती टू रालेगांव


             
             जब-जब चिन्ह दशानन का इस नक्शे पर उभरा करता
             लिए हाथ में धनुष वाण तब वन-वन राम फिरा करता
             चलना सीख मचलना सीख,ऩई रोशनी गढना सीख
             छद्म सुपर्णखा की गलियों से दशाननों तक बढ़ना सीख
        यह कविता आज जितनी प्रासंगिक है शायद ही अपने जन्मकाल के समय रही हो…देश की राजनीति में इन दिनों अन्ना फैक्टर ने तूफान खड़ा कर दिया है.जनमानस से लगातार मिल रहे समर्थन से उत्साहित अन्ना हजारे ने राजनीति में दिलचस्पी लेने का संकेत दिया है.इस ऐलान के बाद पक्ष और विपक्ष की सारी रणनीति चौपट होते दिखाई दे रही है.आडवाणी की दिग्विजय यात्रा को ग्रहण लगते दिखाई दे रहा है,तो वहीं अन्ना के धोबी पछाड़ से कांग्रेस चारो खाने चित्त नजर आ रही है.इसे लेकर अन्य दलों के नेताओं में भी बेचैनी कम नहीं है..अन्नागिरी को फ्लॉप शो कहने वाले लोग,दोनों टांगों के बीच पूंछ दबाकर अब भी गुर्रा रहे हैं.राजनीति में अन्ना की सक्रिय भूमिका के मद्देनजर देश के नेताओं की नींद छू मंतर हो गई है.देश का प्रबुद्ध वर्ग अन्ना को राजनीति से दूर रहने की सलाह दे रहा है.उनकी छवि और देश के विश्वास पर धक्का न लगे.इस बात की अब उन्हें चिंता सताने लगी है.शायद अन्ना के राजनीतिक गुरूओं ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी हो...ताकि देश में दुकानदारी चलाने वालों को सबक सिखाया जा सके.वहीं हर बार की तरह इस शुभ काम का भी विघ्नसंतोषियों ने विरोध करना शुरू कर दिया है.ठीक उसी अंदाज में जब 1920 में खिलाफत आंदोलन के समय तथाकथित महापुरूषों के इशारे पर जिन्ना ने किया था.ये अलग बात है कि वे बाद में गांधी के भक्त बन गये..और बाद में सबसे बड़े विरोधी भी हुए...बहरहाल गौतम ,नानक,कबीर और गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले अन्ना को न तो दुश्मनी की चिंता है..और ना ही दोस्ती की...यदि कुछ है भी तो केवल और केवल संपन्न भारत की चिंता..उन्होंने इस समय परशुराम की तरह देश को बाहुबलियों और भ्रष्टाचार से मुक्त करने का बीड़ा उठाया है..चाणक्य की भूमिका में रहकर वे शायद चन्द्रगुप्त को तराशने का काम कर रहे हैं..उन्हें शायद अपने इतिहास और पौराणिक कथाओं की गहरी जानकारी है..वहीं लोगों को भी पता होगा कि जब जब देश में भ्रष्टाचार के दानव ने अपने रूप को विस्तार दिया है..तब तब राम लक्ष्मण को धनुष बाण लेकर जंगल जंगल घूमना पड़ा है..परशुराम से लेकर गौतम तक, कबीर से लेकर नानक तक,सीता से लेकर मीरा तक सभी को वर्चस्व और दुराग्रह की नीति को तोड़ने के लिये संसद के दरवाजे को त्यागकर सड़क पर उतरना पड़ा है..दरअसल जब जब देश को कुंठित सोच ने राहु के समान ग्रास बनाने की कोशिश की है..तब तब संतहृदय और साधु समाज ने देश को मझधार से बाहर निकाला है,बंगाल का संन्यासी विद्रोह इसका सबसे बड़ा उदाहरण है..जिसने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूंका था,जिसे लोग शायद ही भूलना चाहेंगे कि हाथ में कंठी माला और कमंडल लेकर चलने वाले दुनिया से विरत लोगों ने देश की सुरक्षा के लिये न केवल तलवार उठाई बल्कि एक सशक्त सेना का भी गठन किया.बिरसा मुंडा भी इन्हीं मे से एक हैं...जिन्होने वनांचल में स्वाभिमान का बीजारोपण किया.इसके अलावा हमारे इतिहास और धर्मग्रंथों  में  ऐसे तमाम उदाहरण हैं.जिन्हें हम अन्ना की मुहिम से जोड़कर देख सकते हैं.जो आज भी प्रासंगिक हैं.राजशाही परंपरा से परेशान गौतम ने घूम घूमकर पूरे देश को नैतिकता का ना केवल पाठ पढ़ाया बल्कि कुलीन वर्ग की हठधर्मिता को भी नेस्तनाबूद किया..दरअसल देश को जब-जब आवश्यकता पड़ी है तब-तब संत हृदय और संन्यासी समुदाय ने देश का नेतृत्व अपने हाथों में लिया है..दशरथ नंदन राम और लक्ष्मण ने गुरू श्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ मिलकर तत्कालीन आर्यावर्त के गाजरघास को उखाड़ फेंका..राजाओं के निरंकुशता के विरोध में परशुराम ने एक बार नहीं बल्कि सत्ताइस बार फरसा उठाया और वसुंधरा को आसामाजिक तत्वों से मुक्त किया...गांधी भी इसी कड़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं.जिनके सामने अंग्रेजों को नतमस्तक होना पड़ा..सभी लोग स्वीकार करते हैं कि बापू राजनेता नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से संत थे.जिन्होंने पंरपरागत तरीके से बिना किसी तामझाम के देश को न केवल आजाद कराया बल्कि भारतीय समाज समेत विश्व समुदाय को सेवा  की नई परिभाषा भी दी।इतिहास गवाह है कि भारत का भविष्य उन फक्कड़ों ने बनाया है जिन्हें न तो सत्ता का लोभ रहा और ना ही अपनी ताकत का गुरूर,जब जब जनता की कराह सुनाई दी,तब तब कबीर जैसे क्रांतिकारी संतो का देश को नेतृत्व मिला,सफलता के बाद सही सलामत हांथों में सत्ता की रास थमाकर खुद को नोवाखाली जैसे स्थानों पर परमार्थ की आग में झोंक दिया,जरूरत पड़ने पर धनानंद जैसे आततातियों से भी देश की जनता को छुटकारा दिलाया..अन्ना उसी परंपरा की कड़ी हैं...जिन्हें भारतीय जनता का विश्वास हासिल है...जाहिर तौर पर देश के तमाम राजनीतिक दलों में अन्ना की मुहिम और खिसकते जनमत का डर सता रहा होगा..हिसार उपचुनाव में अन्ना के कांग्रेस हराओ एलान ने कांग्रेस की जमीन  हिलाकर रख दी है...वहीं इस एलान के बाद आने वाले चुनाव मैदान में अन्ना के सिपहसालार नज़र आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी..अगर होगी तो सिर्फ अन्ना समर्थकों के जय और पराजय को लेकर..उससे भी बड़ी बात होगी कि चुनाव में अन्ना की भूमिका को लेकर...प्रश्न तमाम होंगे...जैसे क्या अन्ना चुनाव लड़ेंगे?...क्या अन्ना खम्म ठोकने वालों को मुहतोड़ जवाब दे सकेंगे?...सबसे बड़ी बात तो ये होगी कि क्या अन्ना गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए सत्ता की वागडोर अपने चहेतों को थमा देंगे?...प्रश्न और भी होंगे...जिनमें सबसे बड़ा प्रश्न तो ये होगा कि...क्या ये चहेते,गांधी समर्थकों की तरह देश को बरबादी के मुहाने पर लाकर तो नहीं छोड़ देंगे?...इन तमाम प्रश्नों के उत्तर किसी और को नहीं खुद अन्ना को देने होंगे...क्योंकि अगस्त क्रांति के समय देशवासियों का समर्थन शांति भूषण,मनोज सिंसोदिया और अरविंद केजरीवाल को नहीं बल्कि रालेगांव के संत को मिला है...ऐसा समर्थन कभी गांधी को मिला था...जिनका सपना भारत के तमाम नागिरकों से अलग नहीं था....बावजूद इसके आजादी के चौंसठ साल बाद देश का आम नागरिक समतामूलक समाज की कल्पना लेकर रोज जी रहा है और रोज मर रहा है...आज वह अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है...न तो रामराज्य की संकल्पना ही साकार हो पायी और ना ही आजादी के बाद देशासियों को गांधी दर्शन की झलक ही मिल पायी....देश आज भी उसी मोड़ पर खड़ा है,जिस मोड़ पर महात्मा गांधी ने छोड़ा था...आज देश शिद्दत से महसूस करता है कि..काश सत्ता की वागडोर कुछ समय के लिये ही सही यदि मोहन दास के हाथ में होती..तो शायद भारत की इतनी दुर्दशा नहीं होती..जितनी गांधी के नाम पर इन दिनों हो रही है..लोगों को मलाल है कि आजादी के समय और उसके बाद महात्मा गांधी ने चाणक्य की भूमिका क्यों नहीं निभाई..यदि ऐसा होता तो शायद भारत की तस्वीर ही कुछ और होती...शायद इन्ही प्रश्नों के जवाब को तलाशने के लिये जनता ने गांधी के प्रतिकृति पर अगस्त क्रांति के बहाने विश्वास जताया...इस शर्त पर कि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता...ऐसे समय में अन्ना को न केवल चुनाव लड़वाना है..बल्कि सत्ता के केन्द्र में रहकर सक्रिय भूमिका का भी निर्वहन करना होगा...सत्ता की नई परिभाषा गढ़ गांधी के रामराज्य की संकल्पना को साकार करना होगा...उन विघ्नसंतोषियों को भी बताना होगा कि राजनीति वैभव का द्वार नहीं,बल्कि जनता जनार्दन की सेवा का सशक्त मंच है...ऐसा तभी हो सकता है..जब खुद अन्ना सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले...और आने वाली पीढ़ियो के लिये राजनीति की सही परिभाषा गढ़ें..हां अन्ना वह गलती बिलकुल न करें जिसे महात्मा गांधी ने किया था...क्योंकि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता--------भास्कर मिश्र, 9826252790                     
              

             
             जब-जब चिन्ह दशानन का इस नक्शे पर उभरा करता
             लिए हाथ में धनुष वाण तब वन-वन राम फिरा करता
             चलना सीख मचलना सीख,ऩई रोशनी गढना सीख
             छद्म सुपर्णखा की गलियों से दशाननों तक बढ़ना सीख
        यह कविता आज जितनी प्रासंगिक है शायद ही अपने जन्मकाल के समय रही हो…देश की राजनीति में इन दिनों अन्ना फैक्टर ने तूफान खड़ा कर दिया है.जनमानस से लगातार मिल रहे समर्थन से उत्साहित अन्ना हजारे ने राजनीति में दिलचस्पी लेने का संकेत दिया है.इस ऐलान के बाद पक्ष और विपक्ष की सारी रणनीति चौपट होते दिखाई दे रही है.आडवाणी की दिग्विजय यात्रा को ग्रहण लगते दिखाई दे रहा है,तो वहीं अन्ना के धोबी पछाड़ से कांग्रेस चारो खाने चित्त नजर आ रही है.इसे लेकर अन्य दलों के नेताओं में भी बेचैनी कम नहीं है..अन्नागिरी को फ्लॉप शो कहने वाले लोग,दोनों टांगों के बीच पूंछ दबाकर अब भी गुर्रा रहे हैं.राजनीति में अन्ना की सक्रिय भूमिका के मद्देनजर देश के नेताओं की नींद छू मंतर हो गई है.देश का प्रबुद्ध वर्ग अन्ना को राजनीति से दूर रहने की सलाह दे रहा है.उनकी छवि और देश के विश्वास पर धक्का न लगे.इस बात की अब उन्हें चिंता सताने लगी है.शायद अन्ना के राजनीतिक गुरूओं ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी हो...ताकि देश में दुकानदारी चलाने वालों को सबक सिखाया जा सके.वहीं हर बार की तरह इस शुभ काम का भी विघ्नसंतोषियों ने विरोध करना शुरू कर दिया है.ठीक उसी अंदाज में जब 1920 में खिलाफत आंदोलन के समय तथाकथित महापुरूषों के इशारे पर जिन्ना ने किया था.ये अलग बात है कि वे बाद में गांधी के भक्त बन गये..और बाद में सबसे बड़े विरोधी भी हुए...बहरहाल गौतम ,नानक,कबीर और गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले अन्ना को न तो दुश्मनी की चिंता है..और ना ही दोस्ती की...यदि कुछ है भी तो केवल और केवल संपन्न भारत की चिंता..उन्होंने इस समय परशुराम की तरह देश को बाहुबलियों और भ्रष्टाचार से मुक्त करने का बीड़ा उठाया है..चाणक्य की भूमिका में रहकर वे शायद चन्द्रगुप्त को तराशने का काम कर रहे हैं..उन्हें शायद अपने इतिहास और पौराणिक कथाओं की गहरी जानकारी है..वहीं लोगों को भी पता होगा कि जब जब देश में भ्रष्टाचार के दानव ने अपने रूप को विस्तार दिया है..तब तब राम लक्ष्मण को धनुष बाण लेकर जंगल जंगल घूमना पड़ा है..परशुराम से लेकर गौतम तक, कबीर से लेकर नानक तक,सीता से लेकर मीरा तक सभी को वर्चस्व और दुराग्रह की नीति को तोड़ने के लिये संसद के दरवाजे को त्यागकर सड़क पर उतरना पड़ा है..दरअसल जब जब देश को कुंठित सोच ने राहु के समान ग्रास बनाने की कोशिश की है..तब तब संतहृदय और साधु समाज ने देश को मझधार से बाहर निकाला है,बंगाल का संन्यासी विद्रोह इसका सबसे बड़ा उदाहरण है..जिसने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूंका था,जिसे लोग शायद ही भूलना चाहेंगे कि हाथ में कंठी माला और कमंडल लेकर चलने वाले दुनिया से विरत लोगों ने देश की सुरक्षा के लिये न केवल तलवार उठाई बल्कि एक सशक्त सेना का भी गठन किया.बिरसा मुंडा भी इन्हीं मे से एक हैं...जिन्होने वनांचल में स्वाभिमान का बीजारोपण किया.इसके अलावा हमारे इतिहास और धर्मग्रंथों  में  ऐसे तमाम उदाहरण हैं.जिन्हें हम अन्ना की मुहिम से जोड़कर देख सकते हैं.जो आज भी प्रासंगिक हैं.राजशाही परंपरा से परेशान गौतम ने घूम घूमकर पूरे देश को नैतिकता का ना केवल पाठ पढ़ाया बल्कि कुलीन वर्ग की हठधर्मिता को भी नेस्तनाबूद किया..दरअसल देश को जब-जब आवश्यकता पड़ी है तब-तब संत हृदय और संन्यासी समुदाय ने देश का नेतृत्व अपने हाथों में लिया है..दशरथ नंदन राम और लक्ष्मण ने गुरू श्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ मिलकर तत्कालीन आर्यावर्त के गाजरघास को उखाड़ फेंका..राजाओं के निरंकुशता के विरोध में परशुराम ने एक बार नहीं बल्कि सत्ताइस बार फरसा उठाया और वसुंधरा को आसामाजिक तत्वों से मुक्त किया...गांधी भी इसी कड़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं.जिनके सामने अंग्रेजों को नतमस्तक होना पड़ा..सभी लोग स्वीकार करते हैं कि बापू राजनेता नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से संत थे.जिन्होंने पंरपरागत तरीके से बिना किसी तामझाम के देश को न केवल आजाद कराया बल्कि भारतीय समाज समेत विश्व समुदाय को सेवा  की नई परिभाषा भी दी।इतिहास गवाह है कि भारत का भविष्य उन फक्कड़ों ने बनाया है जिन्हें न तो सत्ता का लोभ रहा और ना ही अपनी ताकत का गुरूर,जब जब जनता की कराह सुनाई दी,तब तब कबीर जैसे क्रांतिकारी संतो का देश को नेतृत्व मिला,सफलता के बाद सही सलामत हांथों में सत्ता की रास थमाकर खुद को नोवाखाली जैसे स्थानों पर परमार्थ की आग में झोंक दिया,जरूरत पड़ने पर धनानंद जैसे आततातियों से भी देश की जनता को छुटकारा दिलाया..अन्ना उसी परंपरा की कड़ी हैं...जिन्हें भारतीय जनता का विश्वास हासिल है...जाहिर तौर पर देश के तमाम राजनीतिक दलों में अन्ना की मुहिम और खिसकते जनमत का डर सता रहा होगा..हिसार उपचुनाव में अन्ना के कांग्रेस हराओ एलान ने कांग्रेस की जमीन  हिलाकर रख दी है...वहीं इस एलान के बाद आने वाले चुनाव मैदान में अन्ना के सिपहसालार नज़र आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी..अगर होगी तो सिर्फ अन्ना समर्थकों के जय और पराजय को लेकर..उससे भी बड़ी बात होगी कि चुनाव में अन्ना की भूमिका को लेकर...प्रश्न तमाम होंगे...जैसे क्या अन्ना चुनाव लड़ेंगे?...क्या अन्ना खम्म ठोकने वालों को मुहतोड़ जवाब दे सकेंगे?...सबसे बड़ी बात तो ये होगी कि क्या अन्ना गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए सत्ता की वागडोर अपने चहेतों को थमा देंगे?...प्रश्न और भी होंगे...जिनमें सबसे बड़ा प्रश्न तो ये होगा कि...क्या ये चहेते,गांधी समर्थकों की तरह देश को बरबादी के मुहाने पर लाकर तो नहीं छोड़ देंगे?...इन तमाम प्रश्नों के उत्तर किसी और को नहीं खुद अन्ना को देने होंगे...क्योंकि अगस्त क्रांति के समय देशवासियों का समर्थन शांति भूषण,मनोज सिंसोदिया और अरविंद केजरीवाल को नहीं बल्कि रालेगांव के संत को मिला है...ऐसा समर्थन कभी गांधी को मिला था...जिनका सपना भारत के तमाम नागिरकों से अलग नहीं था....बावजूद इसके आजादी के चौंसठ साल बाद देश का आम नागरिक समतामूलक समाज की कल्पना लेकर रोज जी रहा है और रोज मर रहा है...आज वह अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है...न तो रामराज्य की संकल्पना ही साकार हो पायी और ना ही आजादी के बाद देशासियों को गांधी दर्शन की झलक ही मिल पायी....देश आज भी उसी मोड़ पर खड़ा है,जिस मोड़ पर महात्मा गांधी ने छोड़ा था...आज देश शिद्दत से महसूस करता है कि..काश सत्ता की वागडोर कुछ समय के लिये ही सही यदि मोहन दास के हाथ में होती..तो शायद भारत की इतनी दुर्दशा नहीं होती..जितनी गांधी के नाम पर इन दिनों हो रही है..लोगों को मलाल है कि आजादी के समय और उसके बाद महात्मा गांधी ने चाणक्य की भूमिका क्यों नहीं निभाई..यदि ऐसा होता तो शायद भारत की तस्वीर ही कुछ और होती...शायद इन्ही प्रश्नों के जवाब को तलाशने के लिये जनता ने गांधी के प्रतिकृति पर अगस्त क्रांति के बहाने विश्वास जताया...इस शर्त पर कि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता...ऐसे समय में अन्ना को न केवल चुनाव लड़वाना है..बल्कि सत्ता के केन्द्र में रहकर सक्रिय भूमिका का भी निर्वहन करना होगा...सत्ता की नई परिभाषा गढ़ गांधी के रामराज्य की संकल्पना को साकार करना होगा...उन विघ्नसंतोषियों को भी बताना होगा कि राजनीति वैभव का द्वार नहीं,बल्कि जनता जनार्दन की सेवा का सशक्त मंच है...ऐसा तभी हो सकता है..जब खुद अन्ना सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले...और आने वाली पीढ़ियो के लिये राजनीति की सही परिभाषा गढ़ें..हां अन्ना वह गलती बिलकुल न करें जिसे महात्मा गांधी ने किया था...क्योंकि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता--------भास्कर मिश्र, 9826252790                     
              

साबरमती टू रालेगांव


            
             जब-जब चिन्ह दशानन का इस नक्शे पर उभरा करता
             लिए हाथ में धनुष वाण तब वन-वन राम फिरा करता
             चलना सीख मचलना सीख,ऩई रोशनी गढना सीख
             छद्म सुपर्णखा की गलियों से दशाननों तक बढ़ना सीख
        यह कविता आज जितनी प्रासंगिक है शायद ही अपने जन्मकाल के समय रही हो…देश की राजनीति में इन दिनों अन्ना फैक्टर ने तूफान खड़ा कर दिया है.जनमानस से लगातार मिल रहे समर्थन से उत्साहित अन्ना हजारे ने राजनीति में दिलचस्पी लेने का संकेत दिया है.इस ऐलान के बाद पक्ष और विपक्ष की सारी रणनीति चौपट होते दिखाई दे रही है.आडवाणी की दिग्विजय यात्रा को ग्रहण लगते दिखाई दे रहा है,तो वहीं अन्ना के धोबी पछाड़ से कांग्रेस चारो खाने चित्त नजर आ रही है.इसे लेकर अन्य दलों के नेताओं में भी बेचैनी कम नहीं है..अन्नागिरी को फ्लॉप शो कहने वाले लोग,दोनों टांगों के बीच पूंछ दबाकर अब भी गुर्रा रहे हैं.राजनीति में अन्ना की सक्रिय भूमिका के मद्देनजर देश के नेताओं की नींद छू मंतर हो गई है.देश का प्रबुद्ध वर्ग अन्ना को राजनीति से दूर रहने की सलाह दे रहा है.उनकी छवि और देश के विश्वास पर धक्का न लगे.इस बात की अब उन्हें चिंता सताने लगी है.शायद अन्ना के राजनीतिक गुरूओं ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी हो...ताकि देश में दुकानदारी चलाने वालों को सबक सिखाया जा सके.वहीं हर बार की तरह इस शुभ काम का भी विघ्नसंतोषियों ने विरोध करना शुरू कर दिया है.ठीक उसी अंदाज में जब 1920 में खिलाफत आंदोलन के समय तथाकथित महापुरूषों के इशारे पर जिन्ना ने किया था.ये अलग बात है कि वे बाद में गांधी के भक्त बन गये..और बाद में सबसे बड़े विरोधी भी हुए...बहरहाल गौतम ,नानक,कबीर और गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले अन्ना को न तो दुश्मनी की चिंता है..और ना ही दोस्ती की...यदि कुछ है भी तो केवल और केवल संपन्न भारत की चिंता..उन्होंने इस समय परशुराम की तरह देश को बाहुबलियों और भ्रष्टाचार से मुक्त करने का बीड़ा उठाया है..चाणक्य की भूमिका में रहकर वे शायद चन्द्रगुप्त को तराशने का काम कर रहे हैं..उन्हें शायद अपने इतिहास और पौराणिक कथाओं की गहरी जानकारी है..वहीं लोगों को भी पता होगा कि जब जब देश में भ्रष्टाचार के दानव ने अपने रूप को विस्तार दिया है..तब तब राम लक्ष्मण को धनुष बाण लेकर जंगल जंगल घूमना पड़ा है..परशुराम से लेकर गौतम तक, कबीर से लेकर नानक तक,सीता से लेकर मीरा तक सभी को वर्चस्व और दुराग्रह की नीति को तोड़ने के लिये संसद के दरवाजे को त्यागकर सड़क पर उतरना पड़ा है..दरअसल जब जब देश को कुंठित सोच ने राहु के समान ग्रास बनाने की कोशिश की है..तब तब संतहृदय और साधु समाज ने देश को मझधार से बाहर निकाला है,बंगाल का संन्यासी विद्रोह इसका सबसे बड़ा उदाहरण है..जिसने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूंका था,जिसे लोग शायद ही भूलना चाहेंगे कि हाथ में कंठी माला और कमंडल लेकर चलने वाले दुनिया से विरत लोगों ने देश की सुरक्षा के लिये न केवल तलवार उठाई बल्कि एक सशक्त सेना का भी गठन किया.बिरसा मुंडा भी इन्हीं मे से एक हैं...जिन्होने वनांचल में स्वाभिमान का बीजारोपण किया.इसके अलावा हमारे इतिहास और धर्मग्रंथों  में  ऐसे तमाम उदाहरण हैं.जिन्हें हम अन्ना की मुहिम से जोड़कर देख सकते हैं.जो आज भी प्रासंगिक हैं.राजशाही परंपरा से परेशान गौतम ने घूम घूमकर पूरे देश को नैतिकता का ना केवल पाठ पढ़ाया बल्कि कुलीन वर्ग की हठधर्मिता को भी नेस्तनाबूद किया..दरअसल देश को जब-जब आवश्यकता पड़ी है तब-तब संत हृदय और संन्यासी समुदाय ने देश का नेतृत्व अपने हाथों में लिया है..दशरथ नंदन राम और लक्ष्मण ने गुरू श्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ मिलकर तत्कालीन आर्यावर्त के गाजरघास को उखाड़ फेंका..राजाओं के निरंकुशता के विरोध में परशुराम ने एक बार नहीं बल्कि सत्ताइस बार फरसा उठाया और वसुंधरा को आसामाजिक तत्वों से मुक्त किया...गांधी भी इसी कड़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं.जिनके सामने अंग्रेजों को नतमस्तक होना पड़ा..सभी लोग स्वीकार करते हैं कि बापू राजनेता नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से संत थे.जिन्होंने पंरपरागत तरीके से बिना किसी तामझाम के देश को न केवल आजाद कराया बल्कि भारतीय समाज समेत विश्व समुदाय को सेवा  की नई परिभाषा भी दी।इतिहास गवाह है कि भारत का भविष्य उन फक्कड़ों ने बनाया है जिन्हें न तो सत्ता का लोभ रहा और ना ही अपनी ताकत का गुरूर,जब जब जनता की कराह सुनाई दी,तब तब कबीर जैसे क्रांतिकारी संतो का देश को नेतृत्व मिला,सफलता के बाद सही सलामत हांथों में सत्ता की रास थमाकर खुद को नोवाखाली जैसे स्थानों पर परमार्थ की आग में झोंक दिया,जरूरत पड़ने पर धनानंद जैसे आततातियों से भी देश की जनता को छुटकारा दिलाया..अन्ना उसी परंपरा की कड़ी हैं...जिन्हें भारतीय जनता का विश्वास हासिल है...जाहिर तौर पर देश के तमाम राजनीतिक दलों में अन्ना की मुहिम और खिसकते जनमत का डर सता रहा होगा..हिसार उपचुनाव में अन्ना के कांग्रेस हराओ एलान ने कांग्रेस की जमीन  हिलाकर रख दी है...वहीं इस एलान के बाद आने वाले चुनाव मैदान में अन्ना के सिपहसालार नज़र आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी..अगर होगी तो सिर्फ अन्ना समर्थकों के जय और पराजय को लेकर..उससे भी बड़ी बात होगी कि चुनाव में अन्ना की भूमिका को लेकर...प्रश्न तमाम होंगे...जैसे क्या अन्ना चुनाव लड़ेंगे?...क्या अन्ना खम्म ठोकने वालों को मुहतोड़ जवाब दे सकेंगे?...सबसे बड़ी बात तो ये होगी कि क्या अन्ना गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए सत्ता की वागडोर अपने चहेतों को थमा देंगे?...प्रश्न और भी होंगे...जिनमें सबसे बड़ा प्रश्न तो ये होगा कि...क्या ये चहेते,गांधी समर्थकों की तरह देश को बरबादी के मुहाने पर लाकर तो नहीं छोड़ देंगे?...इन तमाम प्रश्नों के उत्तर किसी और को नहीं खुद अन्ना को देने होंगे...क्योंकि अगस्त क्रांति के समय देशवासियों का समर्थन शांति भूषण,मनोज सिंसोदिया और अरविंद केजरीवाल को नहीं बल्कि रालेगांव के संत को मिला है...ऐसा समर्थन कभी गांधी को मिला था...जिनका सपना भारत के तमाम नागिरकों से अलग नहीं था....बावजूद इसके आजादी के चौंसठ साल बाद देश का आम नागरिक समतामूलक समाज की कल्पना लेकर रोज जी रहा है और रोज मर रहा है...आज वह अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है...न तो रामराज्य की संकल्पना ही साकार हो पायी और ना ही आजादी के बाद देशासियों को गांधी दर्शन की झलक ही मिल पायी....देश आज भी उसी मोड़ पर खड़ा है,जिस मोड़ पर महात्मा गांधी ने छोड़ा था...आज देश शिद्दत से महसूस करता है कि..काश सत्ता की वागडोर कुछ समय के लिये ही सही यदि मोहन दास के हाथ में होती..तो शायद भारत की इतनी दुर्दशा नहीं होती..जितनी गांधी के नाम पर इन दिनों हो रही है..लोगों को मलाल है कि आजादी के समय और उसके बाद महात्मा गांधी ने चाणक्य की भूमिका क्यों नहीं निभाई..यदि ऐसा होता तो शायद भारत की तस्वीर ही कुछ और होती...शायद इन्ही प्रश्नों के जवाब को तलाशने के लिये जनता ने गांधी के प्रतिकृति पर अगस्त क्रांति के बहाने विश्वास जताया...इस शर्त पर कि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता...ऐसे समय में अन्ना को न केवल चुनाव लड़वाना है..बल्कि सत्ता के केन्द्र में रहकर सक्रिय भूमिका का भी निर्वहन करना होगा...सत्ता की नई परिभाषा गढ़ गांधी के रामराज्य की संकल्पना को साकार करना होगा...उन विघ्नसंतोषियों को भी बताना होगा कि राजनीति वैभव का द्वार नहीं,बल्कि जनता जनार्दन की सेवा का सशक्त मंच है...ऐसा तभी हो सकता है..जब खुद अन्ना सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले...और आने वाली पीढ़ियो के लिये राजनीति की सही परिभाषा गढ़ें..हां अन्ना वह गलती बिलकुल न करें जिसे महात्मा गांधी ने किया था...क्योंकि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता--------

                                     भास्कर मिश्र, 9826252790