माल यहां महंगा है लोग बहुत सस्ते हैं
साफ बच निकलने के औऱ कई रस्ते हैं
सामुहिक भेड़चाल का परिणाम मालूम है लेकिन
जहां भीड़ होती है,लोग वहीं ठसते हैं
क्रान्ति को प्रणाली पर,डाल पर कुल्हाड़ी पर
बस्ती के कालिदास व्यंग्य खूब कसते हैं
मरहम के नये नये इलाके तलाशे जाते हैं
रिश्तों के कई घाव आजीवन रिसते हैं
घर्र-घर्र करती चक्कियां व्यवस्था की
घुन हैं कुछ जौ के साथ पिसते हैं
नालायक बेटों के बाप मूंछ ऐठे हैं
बाप बच्चियों के चल-चल एंडी घिसते हैं
समझ में नही आता यार...इस शहर में भी
साफ बच निकलने के औऱ कई रस्ते हैं
सामुहिक भेड़चाल का परिणाम मालूम है लेकिन
जहां भीड़ होती है,लोग वहीं ठसते हैं
क्रान्ति को प्रणाली पर,डाल पर कुल्हाड़ी पर
बस्ती के कालिदास व्यंग्य खूब कसते हैं
मरहम के नये नये इलाके तलाशे जाते हैं
रिश्तों के कई घाव आजीवन रिसते हैं
घर्र-घर्र करती चक्कियां व्यवस्था की
घुन हैं कुछ जौ के साथ पिसते हैं
नालायक बेटों के बाप मूंछ ऐठे हैं
बाप बच्चियों के चल-चल एंडी घिसते हैं
समझ में नही आता यार...इस शहर में भी
लोग कहां बसते हैं,पैदा कहां होते हैं
आदरणीय श्री पारस जी,
ReplyDeleteनमस्कार|
आपके दोहे एवं गजल के भाव समाज को नयी दिशा देने वाले हैं|
आशा है कि आप अपनी इस विधा को उत्तरोत्तर बढाते रहेंगे|
मेरी शुभकामनाएँ आपको समर्पित हैं| आप हर दिन प्रगति करते रहो|
बहुत-बहुत धन्यवाद|
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
सम्पादक (जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
फोन : 0141-2222225(सायं सात से आठ बजे के बीच)
मोबाइल : 098285-02666
achhi ghazal hai.... yun hi likhate rahein... shubhkaamnaayen....
ReplyDeleteaakarshan