Monday, February 7, 2011

ग़ज़ल

माल यहां महंगा है लोग बहुत सस्ते हैं
साफ बच निकलने के औऱ कई रस्ते हैं
सामुहिक भेड़चाल का परिणाम मालूम है लेकिन
जहां भीड़ होती है,लोग वहीं ठसते हैं
क्रान्ति को प्रणाली पर,डाल पर कुल्हाड़ी पर
बस्ती के कालिदास व्यंग्य खूब कसते हैं
मरहम के नये नये इलाके तलाशे जाते हैं
रिश्तों के कई घाव आजीवन रिसते हैं
घर्र-घर्र करती चक्कियां व्यवस्था की
घुन हैं कुछ जौ के साथ पिसते हैं
नालायक बेटों के बाप मूंछ ऐठे हैं
बाप बच्चियों के चल-चल एंडी घिसते हैं
समझ में नही आता यार...इस शहर में भी
लोग कहां बसते हैं,पैदा कहां होते हैं

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